काश ! हम सब अंधे होते
काश हम सब अंधे होते हमारी आंखों तक रौशनी न होंती चेहरे पर एक काला चश्मा होता,हाथ में लकड़ी की छड़ी होती तब इस विश्व का स्वरुप ही कुछ दूसरा होता प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व बराबर होता । न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता ॥
तब मन्दिर की बनावट, मस्जिद का ढांचा गिरजे की दहलीज़, गुरूद्वारे का आँगन स्तुतिनीय रामायण, और वन्दनीय कुरान पूजनीय बाइबिल, गुरु ग्रन्थ साहिब पावन जब सब कुछ एक ही तरह के दीखते तो हम आज के घ्रणित दौर की तरह यूँ साम्प्रदायिकता की आग़ तक न झुलसते ॥
हर एक हाथ दूसरे को पकड कर चलता तो सारे वैमनस्य स्वयं ही छंट जाते धर्मों की विभन्नता, वर्णों का विभाजन वर्गों की दुविधा, नामों की अड़चन जैसे तमाम नफरत भरे धुएँ के बादल एकता के सूर्य के कारण छंट जाते । न कोई छोटा होता, न कोई बड़ा होता तब मानव केवल मानव का रूप होता ॥
जब सबका एक ही स्वर , एक ही से विचार एक ही मंजिल, एक ही से उदगार एक ही लक्ष्य, एक ही सी दिशा एक ही सा धर्म , एक समान से कर्म हर पल लक्ष्य पर बड़ते हुए कदम एक ही सा चिंतन, एक हृदय , एक मर्म होता । तो इस विश्व का स्वरुप ही दूसरा होता मानव केवल मानव का ही रूप होता न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता मानव केवल मानव का ही रूप होता ॥
लेकिन हम सब आँख होने के बाद भी बेफिक्री से आँखे बंद किए बैठे हैं अनगिनत झूट, फरेब, धोखो के जाल अपने वजूद के इर्द- गिर्द समेटे हैं हम मंजिल के करीब जाना नहीं चाहते बल्कि मंजिल को करीब बुलाना चाहते हैं नेत्रहीनों की तरह एक साथ नहीं हम अलग - अलग होकर ही चलना चाहते हैं । तभी हम ख़ुद को असहाय सा पाते हैं और आगे बड़ने की बजाय पीछे हट जाते हैं ॥
आगे बड़ने के लिए हमें पहले सारे आंखों में पले भ्रम को तोड़ना होगा एक ही स्वर में सबको एक हो साथ एक ध्वनि से ब्रह्म - वाक्य बोलना होगा । तभी हम आगे बड़ने के काबिल हो पाएंगे वरना शून्य के दायरे में सिमट जायेंगे ।।
( उपरोक्त कविता काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )
काश हम सब अंधे होते हमारी आंखों तक रौशनी न होंती चेहरे पर एक काला चश्मा होता,हाथ में लकड़ी की छड़ी होती तब इस विश्व का स्वरुप ही कुछ दूसरा होता प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व बराबर होता । न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता ॥
तब मन्दिर की बनावट, मस्जिद का ढांचा गिरजे की दहलीज़, गुरूद्वारे का आँगन स्तुतिनीय रामायण, और वन्दनीय कुरान पूजनीय बाइबिल, गुरु ग्रन्थ साहिब पावन जब सब कुछ एक ही तरह के दीखते तो हम आज के घ्रणित दौर की तरह यूँ साम्प्रदायिकता की आग़ तक न झुलसते ॥
हर एक हाथ दूसरे को पकड कर चलता तो सारे वैमनस्य स्वयं ही छंट जाते धर्मों की विभन्नता, वर्णों का विभाजन वर्गों की दुविधा, नामों की अड़चन जैसे तमाम नफरत भरे धुएँ के बादल एकता के सूर्य के कारण छंट जाते । न कोई छोटा होता, न कोई बड़ा होता तब मानव केवल मानव का रूप होता ॥
जब सबका एक ही स्वर , एक ही से विचार एक ही मंजिल, एक ही से उदगार एक ही लक्ष्य, एक ही सी दिशा एक ही सा धर्म , एक समान से कर्म हर पल लक्ष्य पर बड़ते हुए कदम एक ही सा चिंतन, एक हृदय , एक मर्म होता । तो इस विश्व का स्वरुप ही दूसरा होता मानव केवल मानव का ही रूप होता न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता मानव केवल मानव का ही रूप होता ॥
लेकिन हम सब आँख होने के बाद भी बेफिक्री से आँखे बंद किए बैठे हैं अनगिनत झूट, फरेब, धोखो के जाल अपने वजूद के इर्द- गिर्द समेटे हैं हम मंजिल के करीब जाना नहीं चाहते बल्कि मंजिल को करीब बुलाना चाहते हैं नेत्रहीनों की तरह एक साथ नहीं हम अलग - अलग होकर ही चलना चाहते हैं । तभी हम ख़ुद को असहाय सा पाते हैं और आगे बड़ने की बजाय पीछे हट जाते हैं ॥
आगे बड़ने के लिए हमें पहले सारे आंखों में पले भ्रम को तोड़ना होगा एक ही स्वर में सबको एक हो साथ एक ध्वनि से ब्रह्म - वाक्य बोलना होगा । तभी हम आगे बड़ने के काबिल हो पाएंगे वरना शून्य के दायरे में सिमट जायेंगे ।।
( उपरोक्त कविता काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )