क्या हम भारतीय स्वार्थी बनते जा रहे हैं या हम लोगो की सहन शीलता बढ़ गई है या हम लोग कायर हो गए हैं .हमे मिलकर इस बात का निर्णय लेना ही होगा की हम क्या हैं ?क्यों हम लोग किसी भी बात को जो हमारे परिवार से सम्बन्ध नहीं रखती उस पर प्रतिक्रिया नहीं देते ?क्यों हम लोग समाज को बदलते देखते रहते है बिना किसी भी हस्तक्षेप कीये चाहे वो नकारात्मक दिशा मे ही हो रहा हो ."यह देश कहाँ जा रहा है?इस समाज का क्या हो रहा है ?कोई कुछ करता क्यों नहीं ?बस इसी तरह के कुछ आदतन जुमले कह कर अपना काम कर देते हैं या कहें कि अपने दायित्व कि इतिश्री कर देते हैं.बहुत ही पीड़ा दायक है यह सब .हकीकतन देखा जाए तो हम लोग कायर हो रहे हैं .हम लोग सत्ता और शक्ति के गुलाम हो रहे हैं.कहीं हम किसी परेशानी मे न पड़ जाएँ और जीवन जो सुचारू रूप से चल रहा है वो कहीं बाधित न हो जाए इस कारण मौन रहना और कंधे उचकाकर कह देना "हमे क्या " हमारा स्वभाव बनता जा रहा है.
बात अगर यह आदत बन जाती तो ठीक था इसे सुधार जा सकता था पर यह तो अपनी सहूलियत के हिसाब से बदल जाता है.घर मे एक रूप और बाहर दूसरा रूप .मतलब परिवार और देश के लिए अलग अलग मापदंड.
जब कोई भी परिवार पर विपदा आती है तो हम उसे शासन और समाज से जोड़कर देखते हैं परन्तु जब समाज पर विपदा आती है तो उसे घर से जोड़कर कर क्यों नहीं देखते ? कहने पर असभ्य लगता है पर सच मे हम लोग दोहरे हैं.
हम लोगों को अपने बचपन से लेकर आज उम्र तक कि सब बातें चाहे वो बहुत अच्छी हो या बहुत बुरी पूरी पूरी याद रहती हैं और हम सब उसका उत्तर ढूँढने कि कोशिश हर लम्हा करते रहते है कि वो बात कैसे ठीक कि जाए ,वो बात किस तरह से सही हो सकती है ?फलां परेशानी का क्या सबब था और क्या हासिल था .किसी ने अगर गलती कि थी तो उसे किस तरह से मुजरिम करार कराया था और अपने लिए सही रास्ता बनाया था .अगर कभी घर मे कोई हादसा हुआ था तो कैसे हुआ और कौन जिम्मेदार था और क्या परिणाम हुआ ?सब कुछ याद रहता है .लेकिन बात जब समाज या देश की आती है तो हम लोगो की दिमागी हालत पतली हो जाती है ,हम भूल जाते है या भूल जाना चाहते हैं ,हम लोगो को किसी चीज़ से सरोकार नहीं रहता क्योंकि यह देश या समाज का मसला है .हमारे परिवार या घर का नहीं .
इस देश मे कितने ही काण्ड हुए और हो रहे हैं.रोज़ अखवार मे पड़ते हैं .किसी ने बलात्कार क्या,औरत जला दी गई ,मुंह पर तेज़ाब फेंक दिया ,करोड़ो रूपये घोटाले मे राजनेता डकार गए .छोटी बच्चो के ज़िस्म्फरोश पकडे गए .आदमी मे आदमी का गोश्त खा लिया.यहाँ फर्जीवाडा ,वहां घोटाला ,यहाँ तस्करी ,वहां भुखमरी .कभी जेसिका लाल हत्या काण्ड,कहीं चारा घोटाला,कहीं मुंबई बोम्ब ब्लास्ट ,सरोजनी नगर दिल्ली बोम्ब ब्लास्ट,नीतिश कटारा हत्या काण्ड,निठारी हत्या काण्ड ,तंदूर काण्ड ,ज़मा निधि घोटाला , हथियार की संदेहास्पद खरीद फ़रोख्त ,
सड़क निर्माण घोटाला ,भूमि पर अवैध कब्ज़ा ,..और न जाने कितने की अपराध .
पर हमारी भी दाद देनी होगी की ५-६ दिन ख़ूब शोर करते है और बाद मे चुप ,जैसे सांप सूंघ गया .कोई भी प्रश्न नहीं और न ही कोई जिज्ञाषा कि क्या हुआ और अपराधी का क्या हश्र हुआ हमने अपराधी को सज़ा दिलवाने कि कोई कोशिश नहीं की और न ही अपना दायित्व समझा कि कभी किसी भी माध्यम से समाज के करनधारो से पूछ सके कि फलां अपराध का क्या कर रहे हैं आप ? हमारी तो सहन शीलता का जवाब नहीं हैं ना .हम चुप रहेंगे .कसम खाकर बैठे है कि बोलेंगे नहीं क्योंकि यह हमारा मसला थोड़े ही हैं .समाज का है ,किसी और का है ,अपने आप निपटेगा .भाड़ मे जाये सब हमे क्या लेना ?मगर यही बात अगर घर पर आ जाये तो हम लोग क्या करेंगे ?ज़रा सोचो .
तब हम सरकार को ,समाज को गाली देंगे ,शासन को कोसेंगे और अपनी पूरी कोशिश करेंगे कि हमे न्याय मिले और इससे कहलवा ,उससे कहलवा,हाथ जोड़के,प्यार से,पैसे से ,दवाब से ,यानी हर तरह से चाहेंगे कि मसला काबू मे आ जाये .अथार्थ जी तोड़ कोशिश और प्रयत्न .
हम लोग अपने हित के लिए लम्बे लम्बे ,बड़े बड़े जुलूस निकाल लेते हैं .बस तोड़ो ,रेल रोको,दुकाने जलाओ,शहर बंद करो,चक्का जाम .यह सब इसलिए कि इसमें व्यक्तिगत फायदा है और राजनेता बनने का अवसर भी .परन्तु कभी हम लोगो ने कसी भी घोटाले या हत्या काण्ड या नरसंहार के लिए जुलुस निकाला हैं ,क्या सालो-साल या महीनो या कहो कुछ सप्ताह तक भी मुहीम चलाई है?जवाब है नहीं बिलकुल नहीं .क्योंकि यह बात हमारी नहीं है किसी और की है वो अपने आप निपट लेगा .
आजकल खून में पहली सी रवानी न रही
बचपन बचपन न रहा , जवानी जवानी न रही
क्या लिबास क्या त्यौहार,क्या रिवाजों की कहें
अपने तमद्दुन की कोई निशानी न रही
बदलते दौर में हालत हो गए कुछ यूँ
हकीक़त हकीकत न रही , कहानी कहानी न रही
इस कदर छा गए हम पर अजनबी साए
अपनी जुबान तक हिन्दुस्तानी न रही
अपनों में भी गैरों का अहसास है इमरोज़
अब पहली सी खुशहाल जिंदगानी न रही
मुझको तो हर मंज़र एक सा दीखता है "दीपक "
रौनक रौनक न रही , वीरानी वीरानी न रही
मैं आप लोगो की या कहूँ हम सब की कमियाँ नहीं निकाल रहा हूँ .आप सब मैं से एक हूँ और आत्म विश्लेषण कर रहा हूँ और पता हूँ की देश को हम लोग ही बदल सकते हैं .कहीं सड़क निर्माण हो रहा हो और मिलाबत लगे तो शासन को ,मीडिया के द्वारा या किसी भी माध्यम से ,जनचेतना का हिस्सा बनकर सूचित कर सकते है और जवाब मांग सकते है की हमारे म्हणत के धन का दुरूपयोग क्यों किया जा रहा है .अपराधी को सज़ा मिलने तक शांत नहीं रहना हैं .किसी भी घोटाले के लिए नहीं हैं हमारा धन .बहुत मेहनत और परिश्रम से कमाई गई रोटी का एक हिस्सा हम लोग सरकार को कर के रूप मे देते है ताकि समाज का सर्वागीण विकास को .हर घर मे रोटी पहुंचे ,रोज़गार पहुँचे.अगर उसका दुरूपयोग होता है तो हम सब को अपने धन का हिसाब मागने मे दर और हिचकिचाहट या घबराहट क्यों ?
समाज मे हिंसा होती है तो असर मेरे घर तक भी आएगा बस ये ही भावना मन मे आ जाये और हम मुजरिम का अंजाम होने तक प्रश्न सूचक नजरो से और बुलंद आवाज़ से अपने हाकिमो से पूछे तो मुझे नहीं लगता की न्याय नहीं मिलेगा.ज़रूर मिलेगा या कहिये कि देना ही होगा .
एक बात याद रखो मेरे दोस्त "जब तक प्रजा हैं तभी तक राजा है" बिना प्रजा के राजा भी कभी राजा होता है और यह प्रजातंत्र है यहाँ प्रजा ही राजा है.इसीलिए आज से ही अपने राजाधिकार का प्रोयोग करो और इस देश से रिश्वत ,ग़रीबी,अशिक्षा,बीमारी,भुखमरी ,लाचारी , मजबूरी,कमजोरी,अनैतिक राज सब कुछ मिटा दो .
दुनिया को भी लग्न चाहिए कि इस देश का नाम भारत यूं ही नहीं पड़ गया .बालक भरत ने शेर के दांत गिन लिए थे और हम लोग तो बड़े है .हमे आदम खोर शेरों के पित मे हाथ डाल कर अपना हक लेना हैं ......शुभस्य शीघ्रम ..
जय भारत
कवि दीपक शर्मा
http://www.kavideepaksharma.com
Vaishali ,Ghaziabad(U.P.)
deepakshandiliya@gmail.com
Tuesday, October 27, 2009
Friday, October 16, 2009
Sunday, September 20, 2009
ईद
From Shayar Deepak Sharma |
आप सभी को ईद की तहे दिल से मुबारकबाद . आप सेहतमंद , खुश , ज़रदार रहें . आप के नूर से यह जहाँ रौशन रहे. आज मिलकर ये वादा करें की हम हमेशा के दुसरे से यूं ही गले मिलकर रहेंगे जैसे की आज ईद के मिल रहे हैं . हम अपने वतन को एक प्यार की मिसाल बना देंगे.
मेरे अहले वतन आप सब को "ईद मुबारक "
दीपक शर्मा
Sunday, September 6, 2009
Friday, February 20, 2009
काश ! हम सब अंधे होते
काश हम सब अंधे होते हमारी आंखों तक रौशनी न होंती चेहरे पर एक काला चश्मा होता,हाथ में लकड़ी की छड़ी होती तब इस विश्व का स्वरुप ही कुछ दूसरा होता प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व बराबर होता । न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता ॥
तब मन्दिर की बनावट, मस्जिद का ढांचा गिरजे की दहलीज़, गुरूद्वारे का आँगन स्तुतिनीय रामायण, और वन्दनीय कुरान पूजनीय बाइबिल, गुरु ग्रन्थ साहिब पावन जब सब कुछ एक ही तरह के दीखते तो हम आज के घ्रणित दौर की तरह यूँ साम्प्रदायिकता की आग़ तक न झुलसते ॥
हर एक हाथ दूसरे को पकड कर चलता तो सारे वैमनस्य स्वयं ही छंट जाते धर्मों की विभन्नता, वर्णों का विभाजन वर्गों की दुविधा, नामों की अड़चन जैसे तमाम नफरत भरे धुएँ के बादल एकता के सूर्य के कारण छंट जाते । न कोई छोटा होता, न कोई बड़ा होता तब मानव केवल मानव का रूप होता ॥
जब सबका एक ही स्वर , एक ही से विचार एक ही मंजिल, एक ही से उदगार एक ही लक्ष्य, एक ही सी दिशा एक ही सा धर्म , एक समान से कर्म हर पल लक्ष्य पर बड़ते हुए कदम एक ही सा चिंतन, एक हृदय , एक मर्म होता । तो इस विश्व का स्वरुप ही दूसरा होता मानव केवल मानव का ही रूप होता न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता मानव केवल मानव का ही रूप होता ॥
लेकिन हम सब आँख होने के बाद भी बेफिक्री से आँखे बंद किए बैठे हैं अनगिनत झूट, फरेब, धोखो के जाल अपने वजूद के इर्द- गिर्द समेटे हैं हम मंजिल के करीब जाना नहीं चाहते बल्कि मंजिल को करीब बुलाना चाहते हैं नेत्रहीनों की तरह एक साथ नहीं हम अलग - अलग होकर ही चलना चाहते हैं । तभी हम ख़ुद को असहाय सा पाते हैं और आगे बड़ने की बजाय पीछे हट जाते हैं ॥
आगे बड़ने के लिए हमें पहले सारे आंखों में पले भ्रम को तोड़ना होगा एक ही स्वर में सबको एक हो साथ एक ध्वनि से ब्रह्म - वाक्य बोलना होगा । तभी हम आगे बड़ने के काबिल हो पाएंगे वरना शून्य के दायरे में सिमट जायेंगे ।।
( उपरोक्त कविता काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )
काश हम सब अंधे होते हमारी आंखों तक रौशनी न होंती चेहरे पर एक काला चश्मा होता,हाथ में लकड़ी की छड़ी होती तब इस विश्व का स्वरुप ही कुछ दूसरा होता प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व बराबर होता । न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता ॥
तब मन्दिर की बनावट, मस्जिद का ढांचा गिरजे की दहलीज़, गुरूद्वारे का आँगन स्तुतिनीय रामायण, और वन्दनीय कुरान पूजनीय बाइबिल, गुरु ग्रन्थ साहिब पावन जब सब कुछ एक ही तरह के दीखते तो हम आज के घ्रणित दौर की तरह यूँ साम्प्रदायिकता की आग़ तक न झुलसते ॥
हर एक हाथ दूसरे को पकड कर चलता तो सारे वैमनस्य स्वयं ही छंट जाते धर्मों की विभन्नता, वर्णों का विभाजन वर्गों की दुविधा, नामों की अड़चन जैसे तमाम नफरत भरे धुएँ के बादल एकता के सूर्य के कारण छंट जाते । न कोई छोटा होता, न कोई बड़ा होता तब मानव केवल मानव का रूप होता ॥
जब सबका एक ही स्वर , एक ही से विचार एक ही मंजिल, एक ही से उदगार एक ही लक्ष्य, एक ही सी दिशा एक ही सा धर्म , एक समान से कर्म हर पल लक्ष्य पर बड़ते हुए कदम एक ही सा चिंतन, एक हृदय , एक मर्म होता । तो इस विश्व का स्वरुप ही दूसरा होता मानव केवल मानव का ही रूप होता न कोई छोटा होता , न कोई बड़ा होता मानव केवल मानव का ही रूप होता ॥
लेकिन हम सब आँख होने के बाद भी बेफिक्री से आँखे बंद किए बैठे हैं अनगिनत झूट, फरेब, धोखो के जाल अपने वजूद के इर्द- गिर्द समेटे हैं हम मंजिल के करीब जाना नहीं चाहते बल्कि मंजिल को करीब बुलाना चाहते हैं नेत्रहीनों की तरह एक साथ नहीं हम अलग - अलग होकर ही चलना चाहते हैं । तभी हम ख़ुद को असहाय सा पाते हैं और आगे बड़ने की बजाय पीछे हट जाते हैं ॥
आगे बड़ने के लिए हमें पहले सारे आंखों में पले भ्रम को तोड़ना होगा एक ही स्वर में सबको एक हो साथ एक ध्वनि से ब्रह्म - वाक्य बोलना होगा । तभी हम आगे बड़ने के काबिल हो पाएंगे वरना शून्य के दायरे में सिमट जायेंगे ।।
( उपरोक्त कविता काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )
हम सब कितने बेदर्द हैं सब कितने खुदगर्ज़ हैं हम न किसी के सुख में सुखी हैं हम न किसी के गम में दुखी हैं हमें परवाह है तो केवल अपनी क्योंकि हम सब खुदगर्ज़ इंसान हैं इंसानियत की शक्ल में हैवान हैं ॥ हम औरों को तो बहुत दूर अपनों को भी खुशहाल नही देख सकते गैर तो गैर हैं , हम तो ख़ुद भी अपनों के घाव नही सेक सकते क्योंकि हमारी स्वार्थ ही राह है स्वार्थ धर्म है , स्वार्थ ही चाह है क्योंकि हम खुदगर्ज़ इंसान हैं इंसानियत की शक्ल में हैवान हैं ॥ हम किसी के जलते घरों से होली मनाते हैं हम किसी के अंधेरों से दिवाली मनाते हैं हमें औरों को रूलाने में मज़ा आता है शर्म के आंसू दिलाने में मज़ा आता है क्योंकि हम सब खुदगर्ज़ इंसान हैं इंसानियत की शक्ल में हैवान हैं ॥ हम छोटे छोटे बच्चों को राहों में भीख मांगते देखते है जिनके दूध पीने की उम्र है उनको मिटटी फांकते देखते हैं हम झिड़क देते हैं उनको सिर्फ दो - दो पैसों के लिए फूंक देते हैं हजारों यूँ ही शौक के लिए , ऐशों के लिए हम उन्हें अपने सीने से नहीं लगा सकते हम उन्हें अपनों की तरह चूम नहीं सकते क्योंकि हम सब खुदगर्ज़ इंसान हैं इंसानियत की शक्ल में हैवान हैं ॥
(उपरोक्त कविता काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )
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